गेहूं ने हमें इस तरह अपना गुलाम बनाया
गेहूं
का मामला गरम है इन दिनों। रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते दुनिया में गेहूं की सप्लाई घटी
है और एक बड़े संकट का डर जताया जाने लगा है। इधर, भारत सरकार ने गेहूं निर्यात पर
रोक लगा दी। इस कदम पर कुछ ताकतवर देश सवाल उठा रहे हैं। गेहूं है ही इतना जरूरी। हुए
होंगे तमाम राजे-महाराजे और तानाशाह, लेकिन गेहूं ने पूरी दुनिया में जिस तरह अपनी
धाक जमाई है, उसकी कोई दूसरी मिसाल ढूंढना मुश्किल है।
इन
दिनों दुनिया गेहूं की कम सप्लाई और इसके ऊंचे दाम से परेशान है। रूस-यूक्रेन युद्ध
का असर तो पड़ा ही है, इस बार गेहूं की फसल भी कमजोर है। आज अपने देश में गेहूं का
दाम पिछले साल के मुकाबले करीब 20 प्रतिशत ज्यादा है। आटा भी लगभग 15 प्रतिशत महंगा
हो चुका है। यूरोप में भी कई जगहों पर आटे का भाव रेकॉर्ड ऊंचे स्तर पर है। इसकी वजहों
में तफसील से जाने से पहले आइए एक नजर डालते हैं गेहूं के उस दबदबे पर, जिसका जिक्र
मैंने अभी किया था।
दरअसल
तमाम बैक्टीरिया और वायरस को छोड़ दें तो गेहूं जितना बड़ा साम्राज्य इस धरती पर किसी
और का नहीं है। यहां तक कि दूसरे देशों पर छल-बल से कब्जा जमाकर उन्हें अपना उपनिवेश
बनाने की हरकतों वाले दौर में भी किसी के पास इतना बड़ा इलाका नहीं था, जितना गेहूं
का है। उस दौर का ब्रिटेन हो, फ्रांस हो या स्पेन…सबका राज फीका पड़ जाता है इसके सामने।
आमतौर
पर लोग सोचते हैं कि गेहूं कभी जंगली पौधा था और इंसानों ने इसकी खेती कर इसे सभ्य
दुनिया लायक बना दिया। लेकिन गेहूं के सफर पर नजर डालें तो माजरा कुछ और लगता है। साफ
दिखता है कि दरअसल गेहूं ने आवारा और घुमंतू होमो सैपियंस को एक जगह ठहरना सिखाया और
आगे चलकर उनकी जिंदगी का एक अहम आधार बन गया।
करीब
25 लाख साल तक हमारे पूर्वज जंगली फल-फूल और जानवरों के शिकार पर निर्भर रहे। तमाम
अध्ययनों से यह पता चलता है कि आज से करीब 10 हजार साल पहले हालात तेजी से बदलने शुरू
हुए। उस बदलाव को एक बड़ी कृषि क्रांति कहा जा सकता है। उन दौर में गेहूं तमाम जंगली
चीजों में से एक था। मध्य पूर्व के कुछ इलाकों में यह खासतौर से पाया जाता था। हालांकि
अगले दो हजार सालों में ही गेहूं उन तमाम जगहों पर पहुंच गया, जहां इंसानों की बसावट
थी।
यह
सब कैसे हुआ होगा? जानेमाने विद्वान युवाल नोवा हरारी इस पर रोशनी डालते हैं। अपनी
किताब सैपियंस, अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइंड (Sapiens, A Brief History of
Humankind) में हरारी ने लिखा है, 'यह सब आसान नहीं था। गेहूं को ढेरों इंसानों की
जरूरत थी। उसे चट्टानें और कंकड़-पत्थर रास नहीं आते थे। लिहाजा सैपियंस ने गेहूं के
लिए खेत बनाने की हाड़तोड़ मेहनत करनी शुरू कर दी। गेहूं ऐसा पौधा है कि यह दूसरे पौधों
के साथ जगह, पानी और अपनी खुराक साझा करना पसंद नहीं करता। लिहाजा इंसान दिन-दिनभर
लगे रहते थे गेहूं के खेतों से दूसरे पौधों को हटाने में।' हरारी लिखते हैं, 'गेहूं
को बीमारी न लगे, इसके लिए सैपियंस इसे कीड़ों से बचाने के इंतजाम में भी जुटे रहे।
चूहों और टिड्डियों से बचाने के लिए किसानों ने खेतों में बाड़ लगाई और पहरा भी दिया।
गेहूं को प्यास भी खूब लगती है। लिहाजा इंसानों ने नहरों और कुओं का इंतजाम भी किया।
गेहूं की भूख मिटाने के लिए सैपियंस ने जानवरों का मल-मूत्र खेतों में डाला ताकि गेहूं
को पोषक तत्व मिल सकें।'
इंसान
ने यह सब किया खुद अपनी फितरत के खिलाफ जाकर। इंसानों का जो विकास क्रम है, उसमें उस
वक्त खेती-बाड़ी का कोई सीन ही नहीं बनता था। इंसानों को तो पेड़ों पर चढ़ना था और
शिकार के लिए जानवरों को घेरना था। खेती और सिंचाई का इंतजाम, कम से कम उस वक्त तो
इंसान के सिलेबस में नहीं था।
लेकिन
गेहूं की संगत ने इंसान को बदल दिया। और अपने संग-साथ की बड़ी कीमत भी वसूली। पुराने
नर कंकालों के अध्ययन से पता चलता है कि गेहूं के दबदबे वाली उस कृषि क्रांति के दौर
में और उसके बाद इंसानों को आर्थराइटिस, हर्निया और स्लिप्ड डिस्क जैसी कई बीमारियां
झेलनी पड़ीं। इंसानों की मेहनत के दम पर गेहूं फूलता-फलता रहा। उसके कई दूसरे जंगली
साथियों का वजूद मिट गया और उनके इलाके पर भी गेहूं का कब्जा हो गया। अमेरिका के कृषि
विभाग का कहना है कि आज दुनिया में साढ़े 22 लाख वर्ग किलोमीटर इलाके में गेहूं की
खेती होती है। यूनाइटेड नेशंस फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन का कहना है कि विश्व
के 35 फीसदी से ज्यादा लोगों के लिए मुख्य अनाज गेहूं ही है।